शनिवार, 22 सितंबर 2018

पितृ पक्ष में जानिए कि अगर श्राद्ध से भी मुक्ति ना हो तो क्या है मुक्ति का अंतिम साधन

         नमस्कार दोस्तों मैं हूँ दिव्या और आज मैं आपसे बात करूँगी मोक्ष की प्राप्ति के बारे में यह मैं आपको श्रीमद् भागवत के अनुसार बताऊँगी।
          पूर्व काल में तुंगभद्रा नदी के तट पर आत्म देव नामक एक ब्राम्हण अपनी पत्नी धुन्धुली के साथ रहते थे आत्म देव धनी थे पर भिक्षा जीवी व धर्म निष्ठ थे किन्तु उनकी पत्नी क्रूर थी उन्हें कोई संतान ना होने के कारण वे बहुत दुखी रहते थे। एक दिन आत्म देव दुखी होकर घर से वन को निकले वहां उन्हें एक सन्यासी महात्मा मिले और जब सन्यासी ने उनके दुख का कारण पूँछा तो ब्राम्हण आत्म देव ने कहा कि मैं संतान के लिए इतना दुखी हो गया हूँ और मैं अपने प्राण त्यागने यहां आया हूँ। संतान हीन जीवन को धिक्कार है!! मैं जिस गाय को पालता हूँ वह बाँझ हो जाती है, जो पेड़ लगाता हूँ उस पर फल फूल नहीं लगते। ब्राम्हण की यह दशा देख कर सन्यासी उन्हें समझाने लगे कि तुम्हारे भाग्य में सात जन्मों तक संतान सुख नहीं है परंतु ब्राम्हण के हठ करने पर महात्मा ने उन्हें एक फल दिया और कहा इसे अपनी पत्नी को खिला देना। फल लेकर ब्राम्हण घर आए और फल अपनी पत्नी को देकर बोले इस फल के प्रभाव से हमें पुत्र की प्राप्ति होगी। यह सुनकर धुन्धुली अपनी सखी के पास गई और रो - रोकर अपनी सखी से कहने लगी सखी! मुझे तो बड़ी चिंता हो रही है फल खाने से गर्भ होगा और मेरा पेट बढ़ जाएगा इससे मैं दुर्बल हो जाऊँगी और यदि डाकुओं ने आक्रमण किया तो मैं भाग भी नहीं पाऊँगी और प्रसव पीड़ा भी नहीं सह सकती। इसलिए उसने वह फल गाय को खिला दिया और  एक दिन सारा वृत्तांत अपनी बहन को सुनाया बहन ने कहा मेरे पेट में बच्चा है वह जब पैदा होगा मैं लाकर तुम्हें दे दूंगी तब तक तुम गर्भवती होने का नाटक करो कुछ समय पश्चात् धुन्धुली ने बच्चे के जन्म का ढोंग किया और बहन का बच्चा ले लिया।उस बच्चे का नाम धुन्धकारी रखा गया।
        तीन महीने बाद गाय ने भी एक मनुष्याकार बच्चे को जन्म दिया परंतु उसके कान गाय की तरह थे तो प्रसन्न होकर ब्राह्मण देव ने उस बालक का नाम गौकर्ण रखा। कुछ काल पश्चात् दोनों बालक बड़े हुए। उनमें गौकर्ण बड़ा पंडित और ज्ञानी हुआ और धुन्धकारी बड़ा ही दुष्ट निकला
                  वैश्याओं के जाल में फंस कर उसने अपने पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर दी। इस प्रकार सारी संपत्ति नष्ट हो जाने पर ब्राम्हण आत्म देव फूट फूट कर रोने लगे और बोले इससे अच्छा तो हम निसंतान थे, अब मैं कहाँ जाऊँ? मेरे इस संकट को कौन काटेगा? उसी समय गौकर्ण जी वहां आए और पिता को वैराग्य का उपदेश देते हुए समझाया कि अब आप सब छोड़कर वन को चले जाइए। गौकर्ण के वचन सुनकर आत्म देव वन को चले गए। पिता के वन चले जाने के बाद धुन्धकारी ने अपनी माता को धन की लालसा में बहुत पीटा और अपने पुत्र के उपद्रवों से दुखी होकर कुएं में गिर गई और उसकी मृत्यु हो गई। गौकर्ण जी तीर्थ यात्रा को निकल गए। धुन्धकारी को इन घटनाओं से कोई दुख नहीं हुआ बल्कि पाँच वैश्याओं को घर में लाकर रहने लगा। उन वैश्याओं की मांगों को पूरा करने के लिए वह नित्य चोरी करने लगा। जब चोरी का बहुत सा माल इकठ्ठा हो गया तो वैश्याओं ने उसकी हत्या कर दी और वहां से चलीं गईं। धुन्धकारी प्रेत योनि को प्राप्त हुआ और भटकने लगा। जब यह समाचार गौकर्ण जी को मिला तो अनाथ समझ कर गया जी में उसका श्राद्ध किया और जहाँ-जहाँ वे जाते उसका श्राद्ध अवश्य करते थे। इस प्रकार घूमते -घूमते गौकर्ण जी अपने नगर में पहुँचे और रात्रि के समय सोने के लिए अपने घर के आँगन में पहुँचे।
         वहाँ अपने भाई को सोया देख धुन्धकारी ने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया। ये सब देख गौकर्ण जी ने पूंछा तू कौन है? तब धुन्धकारी बोला मैं तुम्हारा भाई हूँ और अपनी हत्या का सारा वर्णन किया तब गौकर्ण जी आश्चर्य में पड़ गए कि श्राद्ध और पिंड दान के बाद भी तुम्हें मुक्ति कैसे नहीं मिली? फिर गौकर्ण जी ने उसे आज्ञा दी कि तुम अभी अपने स्थान पर जाकर रहो और मैं तुम्हारी मुक्ति का उपाय सोचता हूँ।
          गौकर्ण की आज्ञा पाकर धुन्धकारी अपने स्थान पर चला गया और इधर गौकर्ण जी ने बहुत विचार करके पंडितों के साथ मिलकर शास्त्रों को उलट पलट कर देखा तो भी उसकी मुक्ति का उपाय नहीं मिला। तब गौकर्ण जी ने सूर्य देव की आराधना कर धुन्धकारी की मुक्ति का उपाय पूछा, तब सूर्य देव ने दूर से ही स्पष्ट शब्दों में कहा- 'श्रीमद्भागवत से मुक्ति हो सकती है, इसलिए तुम इसका सप्ताह पारायण करो।' तब सबने निश्चय किया कि  श्रीमद्भागवत बहुत सरल साधन है अतः गौकर्ण जी भी कथा सुनाने के लिए तैयार हो गए।
       जब गौकर्ण जी व्यास गद्दी पर बैठ कर कथा कहने लगे, तब वह प्रेत भी वहां आया और बैठने के लिए स्थान ढूँढने लगा। इतने में उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गाँठ के एक बांस पर पड़ी उसी के नीचे के छिद्र में बैठ कर वह कथा सुनने लगा। क्योंकि वायु रूप होने के कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था।
      सायं काल को जब कथा को विश्राम दिया गया तब उस बांस की एक गांठ तड़ तड़ शब्द करती फट गई। इसी प्रकार सात दिनों में सातों गाठें फोड़ कर धुन्धकारी बारहों स्कन्धों के सुनने से पवित्र होकर प्रेत योनि से मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण कर सबके सामने प्रकट हुआ। उसने गौकर्ण जी को धन्यवाद दिया और बोला यह प्रेत योनि का नाश करने वाली श्रीमद्भागवत कथा धन्य है तथा श्रीकृष्ण चन्द्र के परम धाम की प्राप्ति कराने वाला इसका सप्ताह पारायण भी धन्य है। इस प्रकार धुन्धकारी को मोक्ष की प्राप्ति हुई। 
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